Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-



123 . अनागत : वैशाली की नगरवधू

अम्बपाली का जन्म -नक्षत्र था । वैशाली में उसका उत्सव मनाया जा रहा था । सम्पूर्ण नगर तोरणों -ध्वजाओं और विविध पताकाओं से सजाया गया था । संथागार की छुट्टियां कर दी गई थीं । गत आठ वर्षों के लिच्छवि गणतन्त्र का यह एक जातीय त्योहार - सा हो गया था ।

अम्बपाली के आवास सप्तभूमि -प्रासाद ने भी आज शृंगार किया था , परन्तु यह कोई नहीं जानता था कि यह उसका अन्तिम शृंगार है। सहस्रों दीपों की झिलमिल ज्योति के नीलपद्म सरोवर में प्रतिबिम्बित होने से ऐसा प्रतीत हो रहा था , मानो स्वच्छ नील गगन अगणित तारागण सहित सदेह ही भूमि पर उतर आया है । उस दिन देवी की आज्ञा से आवास के सम्पूर्ण द्वार खोल दिए गए थे और जनसाधारण को बे - रोक-टोक वहां आने की स्वच्छन्दता थी । आवास में आज वे लोग भी आनन्द से आ - जा रहे थे, जो कभी वहां आने का साहस नहीं कर सकते थे ।

सातवें अलिन्द में देवी अम्बपाली अपनी दासियों, सखियों और नर्तकियों सहित नगर के श्रीमन्त सेट्रिपत्रों और सामन्तपुत्रों का हंस -हंसकर स्वागत एवं मनोरंजन कर रही थीं । बहुमूल्य उपहारों का आज ढेर लगा था , फिर भी तांता लग रहा था । सुदूर चम्पा , ताम्रपर्णी, सिंहल, श्रावस्ती, कौशाम्बी और विविध देशों से अलभ्य भेंट ले - लेकर प्रतिनिधि आए थे। उनमें गज , अश्व , मणि , मुक्ता , रजतपात्र, अस्त्र - शस्त्र , कौशेय सभी कुछ थे। उनको एक कक्ष में सुसज्जित किया गया था और प्रदर्शन किया जा रहा था । उन्हें देख - देखकर लोग कौतूहल और आश्चर्य प्रकट कर रहे थे। बहुत सेट्ठिपुत्र और सामन्तगण अपनी - अपनी भेंटों को उसके समक्ष नगण्य देखकर लज्जा की अनुभूति कर रहे थे। उन्हें देवी अम्बपाली अपने स्वच्छ हास्य एवं गर्मागर्म सत्कार से सन्तुष्ट कर रही थीं ।

सुगन्धित मद्य ढाली जा रही थी और विविध प्रकार के भुने और तले हुए मांस , भक्ष्य - भोज्य स्वच्छन्दता से खाए -पीये जा रहे थे। दीपाधारों पर सहस्र - सहस्र दीप सुगन्धित तेलों के कारण सुरभि -विस्तार कर रहे थे। सैकड़ों धूप स्तम्भों पर सुगन्धित - द्रव्य जलाए जा रहे थे। सुन्दरी युवती दासियां पैरों में पैंजनियां पहने, कमर में मणिमुक्ता की करधनी लटकाए मृणाल - भुजदण्डों के बड़े- बड़े रत्नों के वलय पहने , कानों में हीरे के मकरकुण्डल झुलाती , इठलाती , मुस्काती , बलखाती , फुर्ती और चुस्ती से मद्य ढालती , चन्दन का लेप करती , नागरजनों को पुष्पहार पहनाती, द्यूत के आसन बिछाती , उपाधान लगाती और विविध भोज्य पदार्थ इधर से उधर पहुंचाती फिर रही थीं । स्वयं देवी अम्बपाली एक भव्य शुभ्र कौशेय धारणकर चारों ओर अपनी हंस की - सी चाल से चलती हुईं मन्द मुस्कान और मृदु- कोमल विनोद -वाक्यों से अतिथियों का मन मोहती फिर रही थीं ।

मध्य रात्रि व्यतीत होने लगी । पान - आहार समाप्त होने पर आया । अनावश्यक भीड़ छंट गई । केवल बड़े - बड़े सामन्तपुत्र और सेट्टिपुत्र अब निराला पा अपने - अपने उपधानों पर उठंग गए । उनकी अलस देह, अधमुंदी आंखें और गद्गद वाणी प्रकट कर रही थी कि वे आज इस लोक में नहीं , प्रत्युत मायापूरित किसी अलौकिक स्वर्गलोक में पहुंच चुके हैं ।

मद्य की झोंक में युवराज स्वर्णसेन ने कहा - “ देवी, इस परमानन्द के अवसर पर एक ही अभिलाषा रह गई । ”

“ तो समर्थ युवराज, अब उसे किस अवसर के लिए अवशिष्ट रखते हैं ? पूरी क्यों नहीं कर लेते ? ”

“ खेद है, पूरी नहीं कर सकता। ”उन्होंने हाथ का मद्यपात्र खाली करके मदलेखा की ओर बढ़ा दिया । मदलेखा ने उसमें और मद्य ढाल दी ।

अम्बपाली ने मन्द मुस्कान करके कहा - “ क्यों नहीं युवराज ? ”

युवराज ने ठण्डी सांस लेकर कहा - “ ओह , बड़ी अभिलाषा थी । ”

“ हाय - हाय ! ऐसी अभिलाषा की वस्तु यों ही जा रही है । परन्तु युवराज प्रिय , क्या उसकी पूर्ति एक बार परिपूर्ण छलकते मद्यपात्र को पीने से नहीं हो सकती ? ”

“ नहीं - नहीं , सौ पात्रों से भी नहीं, सहस्र पात्रों से भी नहीं । ”यह कहकर उन्होंने वह प्याला भी रिक्त करके मदलेखा की ओर बढ़ा दिया । मदलेखा ने देवी का इंगित पा उसे फिर आकट भर दिया । देवी ने कृत्रिम गाम्भीर्य धारण करके कहा- “ प्रिय सूर्यमल्ल , प्रियव्रत , अरे, प्राणसखाओं, यहां आओ, भाई युवराज की एक अभिलाषा आज अपूर्ण ही रह जाती है , वह सौ मद्यपात्र पीने से भी नहीं पूरी हो रही है। ”

दो - चार मित्र अपने - अपने मद्यपात्र लिए हंसते हुए वहां आ जुटे । स्वर्णसेन खाली मद्यपात्र हाथ में लिए ठण्डी सांस ले रहे थे ।

सोमदत्त ने कहा - “ क्या मेरा यह पात्र पीने से भी नहीं मित्र ? ”

“ नहीं रे नहीं ; ओफ ! अन्तस्तल जला जा रहा है । ”

“ अरी ढाल री , दाक्खारस ढाल , युवराज का अन्तस्तल जला जा रहा है । ”देवी अम्बपाली ने हंसकर मदलेखा से कहा ।

सभी मित्र हंसने लगे। प्रियवर्मन् ने कहा - “ युवराज की उस अपूर्ण अभिलाषा के समर्थन में एक - एक परिपूर्ण पात्र और पिया जाय। ”

सबने पात्र भरे , स्वर्णसेन ने भी रिक्त पात्र मदलेखा की ओर बढ़ा दिया । मदलेखा ने दाक्खारस ढाल दिया ।

सोमदत्त ने कहा - “ मित्र युवराज, आपकी वह अभिलाषा क्या है ? ”

“ यही कि इस समय दस्यु बलभद्र यदि यहां आमन्त्रित किया गया होता , तो इस मद्य में अपने खड्ग को डुबोकर उसके वक्ष के आर -पार कर देता। ”

“ तो देवी अम्बपाली , आपने यह अच्छा नहीं किया, दस्यु बलभद्र को निमन्त्रित करना ही भूल गईं! ”

“ भूल नहीं गई प्रिय, मैं तो केवल नागरिकों को ही निमन्त्रित कर सकती हूं, दस्यु बलभद्र तो अनागरिक है। ”अम्बपाली ने हंसकर कहा ।

सूर्यमल्ल ने हंसकर कहा- “ अरे मित्र, यह कौन बड़ी बात है! आज सूर्योदय से पूर्व ही तुम अपनी अभिलाषा पूरी कर लेना। ”

देवी अम्बपाली ने कहा - “ मित्रो, क्या तुममें से किसी ने दस्यु को देखा भी है ? ”

“ नहीं , नहीं देखा है । ”

“ तो यदि वह छद्मवेश धारण करके यहां आया हो , आकर पान - गोष्ठी का आनन्द लूट रहा हो तो ? ”

“ तो , यह तो बड़ी दूषित बात होगी । ”– सूर्यमल्ल ने कहा ।

“ दूषित किसलिए प्रिय ? ”

“ हम नागरिकों के साथ एक दस्यु पान करे! ”

“ परन्तु मैं सोचती हूं भद्र , कि किसी भांति हम जान जाएं कि वन्य पशु -पक्षी हम लोगों के विषय में क्या सोचते होंगे , तो सम्भव है, हम जानकर आश्चर्य करें कि वे हम भद्र नागरिकों में बहुत - से दोषों का उद्घाटन कर लेंगे। ”

“ किन्तु यदि देवी उस दस्यु को एक बार देख पाएं ... ? ”

“ तो मैं उसे स्वयं एक पात्र भरकर दूं और अपने को प्रतिष्ठित करूं । ”

“ प्रतिष्ठित ? ”सूर्यमल्ल ने चिढ़कर कहा ।

“ क्यों नहीं मित्र , अन्तत : वह एक साहसिक और वीर पुरुष तो है ही । ”

“ यह तो तभी कहा जा सकता है, जब वह एक बार हमारे खड्ग का पानी पी जाय । ”

“ तो जब उसने वजीभूमि में चरण रखा है, तो एक दिन यह होगा ही और यदि सूर्यमल्ल की भविष्यवाणी सत्य है तो आज ही । किन्तु यह बलभद्र है कौन ? ”

“ आपके इस प्रश्न का उत्तर जाननेवाले को गणपति ने दस सहस्र स्वर्ण भार देने की घोषणा की है। ”

“ तो यह भी हो सकता है भद्र, कि यह दस सहस्र स्वर्णभार उस सूचना देनेवाले पुरुष के सिर का ही मोल हो । ”

इसी समय कक्ष के एक ओर से किसी ने शान्त -स्निग्ध किन्तु स्थिर वाणी में कहा -

“ देवी अम्बपाली अपने हाथों से एक पात्र मद्य देकर यदि अपने को सुप्रतिष्ठित करना चाहें तो यह उनके लिए सर्वोत्तम अवसर है! ”

सबने आश्चर्यचकित होकर उधर देखा । स्तम्भ की ओट से एक दीर्घकाय , बलिष्ठपुरुष नग्न खड्ग हाथ में लिए धीर गति से आगे बढ़ रहा था । उसका सर्वांग काले वस्त्र से आवेष्टित था और मुख पर भी काला आवरण पड़ा हुआ था ।

यह अतर्कित - असम्भाव्य घटना देखकर क्षण - भर के लिए सब कोई विमूढ़ हो गए । अम्बपाली उस कण्ठ - स्वर में कुछ-कुछ परिचित ध्वनि पाकर सन्देह और उद्वेग से उस आगन्तुक को देखने लगीं। इसी समय सूर्यमल्ल ने खड्ग लेकर आगे बढ़कर कहा - “ यदि तुम वही दस्यु हो , जिसकी हम अभी चर्चा कर रहे थे, तो तुम्हें इसी क्षण मरना होगा । ”

“ जल्दी और व्यवस्था -क्रम भंग मत करो मित्र सूर्यमल्ल ! मैं वही हूं , जिसकी तुम लोग चर्चा कर रहे थे। परन्तु मैं तुमसे अभी क्षण - भर बाद बात करूंगा, पहले देवी अम्बपाली एक चषक मद्य अपने हाथों मुझे प्रदान कर सुप्रतिष्ठित हों और मुझे आप्यायित करें । ”

सूर्यमल्ल ने बिना कुछ बोले खड्ग उठाया । अम्बपाली ने अब आगन्तुक के कण्ठ स्वर को भली- भांति पहचान लिया । उन्होंने आगे बढ़कर सूर्यमल्ल का हाथ पकड़कर कहा

“ ठहरो भद्र, पहले मद्य दूंगी । ”उन्होंने अपने हाथों मद्यपात्र भरकर आगे बढ़कर दस्यु को दिया ।

मद्य पीकर उसने पात्र आधार पर रख दिया और कहा - “ सुप्रतिष्ठित हुआ देवी ! ”

“ मैं सुप्रतिष्ठित हुई भन्ते ! ”

सूर्यमल्ल ने आगे बढ़कर कहा - “ बहुत हुआ देवी अम्बपाली , अब आप तनिक हट जाइए । ”

“ परन्तु मेरे आवास में आज रक्तपात नहीं होगा, ” उन्होंने आगे बढ़कर कहा ।

दस्यु ने कहा - “ देवी अम्बपाली ! आज सबकी इच्छा पूरी होने दो । मित्र सूर्यमल्ल , तुम्हारी पारी क्षण - भर बाद आएगी । अभी युवराज स्वर्णसेन , अपनी वह चिरभिलषित इच्छा पूरी करें , जो शत - सहस्र मद्यपात्रों से भी पूर्ण होने वाली नहीं थी । ”फिर थोड़ा आगे बढ़कर कहा - “ मित्र स्वर्णसेन , यह सेवक दस्यु बलभद्र उपस्थित है । खड़े हो जाओ, हाथ का मद्यपात्र रख दो । वह सम्मुख खड्ग है, उठा लो और झटपट चेष्टा करके देखो , कि अभिलाषा पूर्ति कर सकते हो या नहीं ; क्योंकि जब मैं अपनी अभिलाषा पूर्ति करने में जुट जाऊंगा, तो फिर युवराज की मन में रह जाएगी । अवसर नहीं मिलेगा । ”

कक्ष में उपस्थित स्त्री - पुरुष स्तब्ध आतंकित खड़े थे। केवल अम्बपाली का रोम - रोम पुलकित हो रहा था । उन्होंने दस्यु को और दस्यु ने उनको चुराई आंखों में देखकर मन - ही मन हंस दिया ।

दो पग आगे बढ़कर खड्ग को हवा में ऊंचा उठाते हुए दस्यु ने कहा - “ उठो युवराज, मुझे अभी बहुत काम है, आज देवी अम्बपाली का जन्म -नक्षत्र है । आज प्रत्येक नागरिक की मनोभिलाषा पूरी होनी चाहिए। ”

युवराज अभी नशे में झूम रहे थे। अब उन्होंने हाथ का मद्यपात्र फेंक लपककर एक भारी बर्छा भीत से उठा लिया । अन्य लिच्छवि तरुणों ने भी खड्ग खींच लिए ।

दस्यु ने उनकी ओर देखकर कहा - “ मित्रो, पहले युवराज। ”

युवराज ने इसी समय प्रबल वेग से बर्खाफेंका। दस्यु ने उछलकर एक खम्भे की आड़ ले ली । बर्छा खम्भे से टकराकर टूट गया । दस्यु ने आगे बढ़कर युवराज स्वर्णसेन के कण्ठ में हाथ डालकर उन्हें आगे खींच लिया और कण्ठ पर खड्ग रखकर कहा - “ अब इस खड्ग से क्या मैं तुम्हारा सिर काट लूं युवराज ? ”

“ नहीं -नहीं, इस समय यहां ऐसा नहीं होना चाहिए । ”अम्बपाली ने कातर कण्ठ से कहा।

दस्यु ने हंसकर कहा - “ यही मेरी भी इच्छा है, परन्तु इसके लिए घुटने टेककर युवराज को प्राण-भिक्षा मांगनी होगी।

स्वर्णसेन ने सूखे होंठ चाटकर कहा - “ मेरा खड्ग कहां है ? ”

“ यह है मित्र , ” दस्यु ने खड्ग उठाकर युवराज परफेंक दिया । युवराज ने भीम वेग से आगे बढ़कर दस्यु पर खड्ग का प्रहार किया , परन्तु नशे के कारण वार पृथ्वी पर पड़ा।

दस्यु धीरे - से एक ओर हट गया । युवराज झोंक न संभाल सकने के कारण औंधे मुंह पृथ्वी पर गिर गए ।

दस्यु ने एक लात मारकर कहा- “ अब घुटनों के बल बैठकर प्राणदान मांगो युवराज ! ”और उसने अनायास ही युवराज को अपने चरणों पर लुटा दिया ।

अम्बपाली ने हर्षातिरेक से विह्वल होकर कहा - “ ओह ! ”

परन्तु दूसरे ही क्षण क्रुद्ध सामन्तपुत्र चारों ओर से खड्ग ले - लेकर दौड़े ।

“ जो जहां है, वहीं खड़ा रहे । ”दस्यु ने कड़कते स्वर में कहा - “ मैं यहां तुम मद्यप स्त्रैणों की हत्या करने नहीं आया हूं ! ”

लोगों ने भयभीत होकर देखा - अनगिनत काली- काली मूर्तियां प्रेत की भांति कक्ष में न जाने कहां से भर गईं । सबके हाथ में विकराल नग्न खड्ग थे।

दस्यु ने कहा - “ एक - एक आओ और अपने - अपने स्वर्ण- रत्न , आभरण अंगों पर से उतारकर यहां मेरे चरणों में रखते जाओ!

सबने देखा, प्रत्येक के पृष्ठ पर एक - एक यम नग्न खड्ग लिए खड़ा है । सब जड़वत् खड़े रहे ।

“ पहले तुम स्वर्णसेन ।” — दस्यु ने युवराज की गर्दन पर खड्ग की नोक रखकर कहा।

स्वर्णसेन ने अपने रत्नाभरण उतारकर चुपचाप दस्यु के पैरों में रख दिए । इसके अनन्तर एक - एक करके सबने उनका अनुसरण किया ।

दस्यु ने मुस्कराकर कहा - “ हां अब ठीक हुआ । ”अम्बपाली ने मदलेखा को संकेत किया , वह कक्ष में गई और एक रत्न -मंजूषा लेकर लौट आई , उसे अम्बपाली ने अपने हाथों में ले चुपचाप दस्यु के चरणों में रख दिया ।

इसी समय महाप्रतिहार ने भय से कांपते - कांपते आकर कहा - “ देवी , सम्पूर्ण आवास को सहस्रों दस्युओं ने घेर लिया है। ”

अम्बपाली ने स्निग्ध स्वर में कहा

“ आगार -जेट्ठक को कह भद्र कि सब द्वार खोल दे, सब पहरे हटा ले , समस्त भण्डार उन्मुक्त कर दे और दस्यु से कह कि वे सम्पूर्ण आवास लूट ले जायं। ”

प्रतिहार भयभीत होकर कभी देवी और कभी दस्युपति के चरणों में पड़ी रत्न - राशि की ओर, कभी प्रस्तर- प्रतिमा की भांति अवाक् -निस्पन्द खड़े सेट्ठि - सामन्त - पुत्रों को देखने लगा । फिर चला गया । अम्बपाली ने कल में खड़े दस्युओं को सम्बोधित करके कहा - “ मित्रो , उस कक्ष में आज की बहुमूल्य उपानय उपहार -सामग्री एकत्रित है, इसके अतिरिक्त आवास में शत - कोटि स्वर्णभार, बहुत - सा अन्न - भण्डार तथा गज , रथ , अश्व हैं । वह सब लूट लो । अनुमति देती हूं, आज्ञा देती हूं! ”ऐसा प्रतीत होता था जैसे देवी अम्बपाली के शरीर का एक - एक रक्त -बिन्दु आनन्द से नृत्य कर रहा था ।

दस्यु बलभद्र ने संकेत से सबको रोककर फिर अम्बपाली की ओर घूरकर कहा - “ देवी और सब तथाकथित भद्र जन उस कक्ष के उस पार अलिन्द में तनिक चलने का कष्ट करें । ”

सबने दस्यु की आज्ञा का तत्क्षण पालन किया । अलिन्द में जाकर दस्यु ने द्वार का आवरण उघाड़ दिया । सबने देखा कि नीचे प्रांगण में असंख्य नरमुण्ड खड़े हैं । सबकी पीठ पर एक - एक गठरी है ।

बलभद्र ने पुकारकर कहा- “ मित्रो, तुमने देवी अम्बपाली के आवास से क्या लूटा है ? ”

“ हमने केवल अन्न लिया है भन्ते! ”

अम्बपाली ने कहा - “ मेरे आवास में शत - कोटि स्वर्णभार और अनगिनत रत्न चहबच्चों और खत्तों में भरे पड़े हैं । सबके द्वार उन्मुक्त हैं , तुम लूट क्यों नहीं लेते प्रियजनो ? ”

“ नहीं - नहीं देवी , हम ऐसे दस्यु नहीं हैं । हम भूखे ग्रामीण कृषक हैं । अंतरायण के अधिकारियों ने सेना भेजकर हमसे बलि ग्रहण कर ली थी , वे हमारी सारी फसल उठाकर ले गए हैं , हमारे बच्चे भूखों मर रहे थे। देवी की जय रहे! अब वे पेट भरकर खाएंगे। ”

दस्यु ने कहा - “ देवी अम्बपाली, यह गणतन्त्र भी उसी भांति गण - शोषक है, जैसे साम्राज्य । यहां भी दास हैं , दरिद्र हैं और ये निकम्मे मद्यप स्त्रैण सामन्तपुत्र हैं । ये सेट्टिपुत्र हैं । आज ये कंकड़ - पत्थर की भांति अरब - खरब के रत्न - मणि अपने शरीर पर लादकर इन भूखे-नंगे कृषकों को लूटने को सेना भेजकर यहां मदमत्त होने आए हैं । ये सभी गणरक्षक तो यहां हैं , जो निर्लज्ज की भांति वीर - दर्प करते हैं । देवी ! मैं ये हीरे - मोती इन्हीं कृषकों को लौटा देना चाहता हूं , जिनके पेट का अन्न छीनकर ये मोल लिये गए हैं । इन्हें फिर से बेचकर ये अन्न मोल लेकर अपने बच्चों को खिलाएंगे और वस्त्र पहनाएंगे । ”

दस्यु की आंखों से आग की झरें निकल रही थीं । इसी समय मदलेखा धीरे- धीरे आगे बढ़ी । उसने अपने दोनों हाथ आगे बढ़ा दिए । उनमें उसके दो - तीन आभरण थे। मृदु मन्द स्वर से कहा - “ ये मेरे हैं भन्ते , इन्हें लेकर मुझे भी अनुग्रहीत कीजिए! ”

कठोर दस्य द्रवित हआ । उसने आशीर्वाद का वरद हस्त उस क्रीता दासी के मस्तक पर रखा और फिर कहा - “ मित्रो , अब तुम शान्त भाव से अपने - अपने स्थान को चले जाओ। ”

सबके चले जाने पर दस्यु ने कहा - “ आप सब जो जहां हैं , घड़ी - भर वहीं रहें ! ”

सबने चुपचाप दस्यु की आज्ञा का पालन किया । दस्यु - समुदाय वहां से उसी प्रकार लोप हो गया , जिस प्रकार प्रकट हुआ था ।

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